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अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस 2025: बराबरी के संघर्ष में नई चुनौतियाँ, महिला अधिकारों की लड़ाई के सामने बढ़ते खतरे, प्रगतिशील आंदोलनों के लिए बड़ा सवाल

ज़ोहेब खान……..रायपुर। अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस 2025 के मौके पर संयुक्त राष्ट्र ने महिलाओं को हर क्षेत्र में बराबरी देने का आह्वान किया है, लेकिन मौजूदा राजनीतिक और सामाजिक परिस्थितियाँ इस राह को कठिन बनाती दिख रही हैं। बढ़ती दक्षिणपंथी विचारधारा, संकीर्ण राष्ट्रवाद और धार्मिक कट्टरता के चलते महिलाओं के अधिकारों पर नए खतरे मंडरा रहे हैं।

 

विशेषज्ञों का मानना है कि भाजपा-आरएसएस की विचारधारा समाज के बड़े हिस्से में गहराई से पैठ बना चुकी है, जिससे महिला सशक्तिकरण को वास्तविक लाभ मिलने के बजाय धार्मिक और जातिगत राजनीति के नजरिए से देखा जाने लगा है। समान नागरिक संहिता, दहेज विरोधी कानूनों में संभावित बदलाव और अल्पसंख्यक, दलित व आदिवासी महिलाओं के अधिकारों पर असर डालने वाली नीतियों को लेकर आशंका जताई जा रही है।

 

अर्थव्यवस्था पर पड़ते प्रभाव और मीडिया की भूमिका पर भी सवाल उठ रहे हैं। हालिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, मध्यम वर्ग की क्रय शक्ति में गिरावट आई है, लेकिन सरकार समर्थित मीडिया इस हकीकत को उजागर करने से बच रहा है। वहीं, सोशल मीडिया और व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी के जरिए कट्टरपंथी विचारधारा को बढ़ावा दिया जा रहा है, जिससे बौद्धिक समाज भी प्रभावित हो रहा है।

 

इतिहासकारों, बुद्धिजीवियों और स्वतंत्र विचारकों पर बढ़ते हमलों के बीच महिला आंदोलन के लिए यह एक नई चुनौती है कि वह न केवल महिलाओं की बराबरी की लड़ाई को आगे बढ़ाए, बल्कि सामाजिक सद्भाव और लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा का भी मोर्चा संभाले। अमर्त्य सेन जैसे विचारकों का मानना है कि भारत में बौद्धिकता की समृद्ध परंपरा रही है और यही देश को इन खतरों से उबारने की ताकत दे सकती है।

 

इस अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर सवाल यह है कि क्या महिला आंदोलन सामाजिक न्याय, समानता और प्रगतिशील मूल्यों की रक्षा के लिए एक व्यापक जन आंदोलन का हिस्सा बन सकेगा?

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